
महाकुंभ में अब तक 55 करोड़ श्रद्धालु संगम में डुबकी लगा चुके हैं. वहीं, शिवरात्रि से पहले ही प्रयागराज में बड़ी संख्या में लोग शाही स्नान करने के लिए पहुंच रहे हैं. तमाम परेशानियों के बाद भी लोगों में गजब का उत्साह नजर आ रहा है.
महाकुंभ, यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है “अमरत्व का मेला”
ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार यह मेला पौष पूर्णिमा के दिन आरंभ होता है और मकर संक्रान्ति इसका विशेष ज्योतिषीय पर्व होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।
कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।
इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है।
पौष पूर्णिमा,मकर संक्रान्ति,मौनी अमावस्या,वसन्त पंचमी,माघी पूर्णिमा,महाशिवरात्रि महाकुंभ में भगवान शिव, भगवान विष्णु, मां लक्ष्मी, वरुण देव, गंगा मैया, और अघोर काली की पूजा की जाती है.
महाकुंभ में गूंज रही है शंख और मंत्रों की ध्वनि, आम बनाम खास माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। सनातन की पुनर्स्थापना के लिए जो शास्त्र से नहीं माने, उन्हें शस्त्र से मनाया गया।
मेले में आस्था का प्रवाह है।
स्पष्ट है कि यह केवल समागम भर नहीं है – यहां आस्था, भक्ति की भव्यता का गगनचुंबी दर्शन है। करोड़ों लोग पवित्र स्नान करने के लिए हजारों एकड़ में फैले महाकुंभनगर में पहुंच रहे हैं। दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समागम और हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक महाकुंभ मेला, हर 144 साल में एक बार आयोजित किया जाता है। यह उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहा है। तीन नदियों- गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के संगम की ओर बढ़ते भक्तों का नजारा देखने लायक है – मीलों तक नंगे पांव चलते तीर्थयात्री, भस्म रमाए साधु। महाकुंभ मेला एक दुर्लभ और असाधारण आयोजन है जो प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के पवित्र संगम पर हर 144 साल में एक बार होता है
महाकुंभ लाखों लोगों की जिंदगी में गहराई से जुड़ा हुआ है महाकुंभ मेले में ग्रहों की विशेष स्थिति होती है, जो इसे भाग लेने वालों के लिए जीवन में एक बार मिलने वाला आध्यात्मिक अवसर बनाती है। दरअसल, महाकुंभ भक्ति की भव्यता के अलावा हमारे देश और सनातन की दिव्यता का प्राकाट्य भी है। बतौर भारतीय यह अपनी अध्यात्मिकता, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ने का मौका है। साफ दिखता है कि महाकुंभ लाखों लोगों की जिंदगी में गहराई से जुड़ा हुआ है। यह सिर्फ हिंदुओं का इतिहास नहीं है, भारत का भी इतिहास है। यह प्राचीन भारत की विरासत को आगे बढ़ाने की क्षमता का प्रमाण है।
धार्मिक पहलू से इतर, यह सदियों से चली आ रही परंपरा का परिचायक भी है। यही परंपरा भारत के विकसित होते सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ताने-बाने को आकार देती रही है। इसे सराहनीय बना रही है इसकी समावेशिता, जहां कोई भी अपनी पहचान की परवाह किए बिना भाग ले सकता है। प्रयागराज पहुंचने वाली और गंगा के तट पर डेरा डाले लाखों श्रद्धालु भोर में डुबकी लगा रहे हैं, जब तारे अभी भी टिमटिमा रहे होते हैं।
प्रयागराज इस बार महाकुंभ या पूर्ण कुंभ की मेजबानी कर रहा है। कुंभ मेले के बारे में कई मिथक हैं, इसकी सटीक उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धांत हैं। कुछ लोगों का मानना है कि इसका उल्लेख वेदों और पुराणों में मिलता है। कुछ का कहना है कि यह हाल में शुरू हुआ है, बमुश्किल दो शताब्दियों पहले। लेकिन यह तो तय है कि यह आयोजन दुनिया में सबसे बड़े समागम वाले आयोजनों में शुमार है।
पौराणिक आख्यान
संस्कृत शब्द कुंभ का अर्थ है घड़ा या बर्तन। कथा यह है कि जब देवों और असुरों ने समुद्र मंथन किया, तो धन्वंतरि अमृत का घड़ा लेकर निकले। यह सुनिश्चित करने के लिए कि असुर इसे न पा लें, इंद्र के पुत्र जयंत घड़ा लेकर भाग गए। सूर्य, उनके पुत्र शनि, गुरु (ग्रह बृहस्पति), और चंद्रमा उनकी और घड़े की रक्षा करने के लिए साथ गए। जयंत के भागते समय अमृत छलक कर चार स्थानों पर गिरा : हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक-त्र्यंबकेश्वर। वे 12 दिनों तक भागते रहे। देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है, इसलिए सूर्य, चंद्रमा और गुरु की सापेक्ष स्थिति के आधार पर हर 12 साल में इन स्थानों पर कुंभ लगता है।
प्रयागराज और हरिद्वार में भी हर छह साल में अर्ध-कुंभ ( अर्ध का मतलब आधा होता है) का आयोजन होता है। 12 साल बाद होने वाले इस उत्सव को पूर्ण कुंभ या महाकुंभ कहा जाता है। ये चारों स्थान नदियों के तट पर स्थित हैं – हरिद्वार में गंगा हैं, प्रयागराज में गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती का संगम है, उज्जैन में क्षिप्रा हैं, और नासिक-त्र्यंबकेश्वर में गोदावरी हैं। माना जाता है कि कुंभ के दौरान, आकाशीय पिंडों की विशिष्ट स्थिति के बीच इन नदियों में डुबकी लगाने से पाप धुल जाते हैं और पुण्य प्राप्त होता है।
कैसे तय होता है कुंभ का स्थान
यह ज्योतिषीय गणना पर निर्भर करता है। कुंभ मेले में 12 साल के अंतराल का एक और कारण यह है कि बृहस्पति को सूर्य के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में 12 साल लगते हैं। कुंभ मेले की वेबसाइट के अनुसार, जब बृहस्पति कुंभ राशि (जिसका प्रतीक जल वाहक है) में होता है, और सूर्य और चंद्रमा क्रमश: मेष और धनु राशि में होते हैं, तो हरिद्वार में कुंभ आयोजित किया जाता है। जब बृहस्पति वृषभ राशि में होता है और सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं (इस प्रकार, मकर संक्रांति भी इसी अवधि में होती है) तो कुंभ प्रयाग में आयोजित किया जाता है। जब गुरु सिंह राशि में होता है, तथा सूर्य और चंद्रमा कर्क राशि में होते हैं, तो कुंभ नासिक और त्र्यंबकेश्वर में आयोजित किया जाता है, यही कारण है कि इन्हें सिंहस्थ कुंभ भी कहा जाता है।
कुंभ मेले की ऐतिहासिकता
कुंभ मेले की प्राचीनता के प्रमाण के रूप में स्कंद पुराण का हवाला दिया जाता है। कुछ लोग चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा सातवीं शताब्दी में प्रयाग में आयोजित मेले का वर्णन करते हैं। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के ज्योतिष विभाग के प्रमुख प्रोफेसर गिरिजा शंकर शास्त्री के मुताबिक, ‘आज हम जिस कुंभ मेले को जानते हैं, उसका कोई भी उल्लेख निश्चित रूप से किसी भी शास्त्र में नहीं है। समुद्र मंथन का वर्णन कई पुस्तकों में मिलता है, लेकिन चार स्थानों पर अमृत के छलकने का वर्णन नहीं मिलता। कुंभ मेले की उत्पत्ति को समझाने के लिए स्कंद पुराण का व्यापक रूप से हवाला दिया जाता है, लेकिन पुराण के मौजूदा संस्करणों में वे संदर्भ नहीं बचे हैं।’
हालांकि, गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक महाकुंभ पर्व में दावा किया गया है कि ऋग्वेद में ऐसे श्लोक हैं जिनमें कुंभ मेले में भाग लेने के लाभों का उल्लेख है। कई लोगों का मानना है कि यह आठवीं शताब्दी के आदि शंकराचार्य थे जिन्होंने इन चार आवधिक मेलों की स्थापना की थी, जहां हिंदू तपस्वी और विद्वान मिलते थे, चर्चा करते थे, विचारों का प्रसार करते थे और आम लोगों का मार्गदर्शन करते थे। एक तर्क यह भी है कि प्रयाग में माघ मेले (हिंदू महीने माघ में आयोजित होने वाला मेला) का एक प्राचीन स्नान उत्सव आयोजित किया जाता था, जिसे शहर के पंडितों ने 1857 के विद्रोह के कुछ समय बाद ‘कालातीत’ कुंभ के रूप में प्रतिष्ठित किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अंग्रेज इसमें हस्तक्षेप न करें।
हालांकि, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और सोसाइटी आफ पिलग्रिमेज स्टडीज के महासचिव प्रोफेसर डीपी दुबे के मुताबिक, हरिद्वार में होने वाले मेले को संभवत: सबसे पहले कुंभ मेला कहा गया होगा, क्योंकि इस मेले के समय बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं। कुंभ की उत्पत्ति उत्तरी मैदानों की महान जीवन शक्ति के रूप में गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है। पवित्र नदियों के तट पर मेले वास्तव में एक प्राचीन हिंदू परंपरा है। कुंभ मेले का सबसे पहला उल्लेख हिंदू पुराणों और प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जिसमें इसे ऐसे समय के रूप में वर्णित किया गया है जब देवता भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए पृथ्वी पर उतरते हैं। गुप्त काल (लगभग चौथी-छठी शताब्दी ई.) में, कुंभ मेले में बड़ी भीड़ उमड़ने लगी क्योंकि राजाओं और शासकों ने इस आयोजन का समर्थन किया, पवित्र नदियों के किनारे मंदिर और स्नान घाट बनवाए। यह काल इस आयोजन के स्थानीय उत्सव से अखिल भारतीय आध्यात्मिक उत्सव में बदलने की शुरुआत का प्रतीक है।
अखाड़े और शाही स्नान महत्त्वपूर्ण
आठवीं शताब्दी से ही विभिन्न अखाड़ों के साधु (भिक्षु) प्रयागराज में शाही स्नान या पवित्र स्नान करने के लिए शुभ दिनों पर एकत्रित होते हैं। इन अखाड़ों का नेतृत्व नागा साधु करते हैं और त्रिशूल, तलवार, भाले, डंडे और ढोल जैसे हथियार धारण करते हैं। नागा साधु विभिन्न अखाड़ों से पारंपरिक जुलूस निकालकर स्रान के लिए नदी तक जाते हैं। नौवीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक अखाड़े ही महीने भर चलने वाले कुंभ उत्सव का आयोजन करते थे और शाही स्नान का क्रम तय करते थे, जो बाद में विवाद का विषय बन गया। लेकिन अब शाही स्रान का क्रम संस्थागत हो गया है, हालांकि अखाड़ों का दबदबा अभी भी बना हुआ है। मकर संक्रांति, पौष पूर्णिमा, मौनी अमावस्या, बसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के शुरुआती घंटों में रथों, पालकी या हाथियों पर बैठे अखाड़ों के प्रमुख साधु या महामंडलेश्वर शाही स्नान का नेतृत्व करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद कुंभ
पहला कुंभ मेला जनवरी 1954 में भारतीय अधिकारियों द्वारा आयोजित किया गया था। 1966 में, सात लाख से अधिक श्रद्धालुओं ने माघ पूर्णिमा पर पवित्र स्रान किया। जब 1975 से पूरे देश में आपातकाल लागू था, वर्ष 1977 में 12 कुंभ मेले संपन्न हुए और दो धाराओं में गंगा के प्रवाह से दो ‘संगम’ बने। 1989 में कुंभ क्षेत्र का विस्तार 3,000 एकड़ तक कर दिया गया, जिसमें सेना द्वारा गंगा पर और अधिक पंटून पुल बनाए गए। प्रयागराज में पवित्र स्रान के लिए भीड़ 1.5 करोड़ तक पहुंच गई, और कुंभ मेले को दुनिया के सबसे बड़े लोगों के जमावड़े के रूप में गिनीज वर्ल्ड बुक आफ रेकार्ड्स में दर्ज किया गया। कुंभ मेले का प्रसारण 2001 से सरकारी मीडिया चैनल दूरदर्शन पर शुरू हुआ। भारत के रिमोट सेंसिंग उपग्रह (आइआरएस-आइडी) ने दो नदियों गंगा और यमुना के संगम सहित कुंभ क्षेत्र के परिदृश्य को कैद किया ।
वर्ष 2013 में सबसे बड़े स्रान दिवस- मौनी अमावस्या पर, संगम पर रेकार्ड तीन करोड़ तीर्थयात्री पहुंचे थे। सरकार ने 14 सेक्टरों में फैले 22 घाटों की व्यवस्था की थी, जो गंगा के तट पर 18,000 फीट तक फैले थे। वर्ष 2019 में प्रयागराज में अर्ध कुंभ में कई नई व्यवस्थाएं शुरू की गर्इं, जिनमें शाही स्नान में किन्नर अखाड़े को शामिल करना भी शामिल है। इसके अलावा, कुंभ परिसर को साफ रखने वाले 10,000 सफाई कर्मचारियों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सम्मानित किया।
अब वैश्विक स्वरूप
इस बार कुंभ मेला एक धार्मिक आयोजन के अपने स्वरूप से कहीं ज्यादा विशाल हो गया है। यह अब एक वैश्विक आयोजन है जो आस्था, संस्कृति और मानव सभ्यता के विराट रूप का समायोजन है। महाकुंभ नवाचार का केंद्र बन गया है, यह यात्रा क्षेत्र में टिकाऊ पर्यटन उपादानों को विकसित करने, बुनियादी ढांचे को बढ़ाने और विविध वैश्विक जरूरतों को पूरा करने के अनुरूप सेवाएं देने की जरूरत पर जोर दे रहा है। इससे वैश्विक पर्यटन को आकार देने की नई राह खुली है। मेजबानी करने की भारत की क्षमता बढ़ी है। जैसे-जैसे दुनिया जुड़ती जाएगी, कुंभ मेला भविष्य में वैश्विक पर्यटकों को आकर्षित करना जारी रखेगा।
रिपोर्ट : अजित चौबे/विनय चतुर्वेदी